गाँधी परिवार का दिल्ली में 2 एकड़ जमीन पर कब्जा (बिना पैसे का) : 45 साल में 4 कॉन्ग्रेसी सरकारों ने ऐसे किया खेल

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इस खेल में कई कारनामे किए गए। कभी कॉन्ग्रेस भवन ट्रस्ट का नाम बदल कर ‘जवाहर भवन ट्रस्ट’ कर दिया गया। 1976 के इंदिरा गाँधी सरकार से शुरू हुआ यह खेल राजीव गाँधी की सरकार से होते हुए नरसिम्हा राव की सरकार के बाद यूपीए 2 तक चला। 4 बार नियमों में बदलाव करके अंततः एक परिवार की जागीर बनी 2 एकड़ जमीन।

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आज की तारीख़ में 2 एकड़ ज़मीन की कीमत कितनी है? अगर वो जमीन देश की राजधानी दिल्ली में, दिल्ली में भी ‘हार्ट ऑफ़ लुटियंस’ के ठीक केंद्र में हो तो?

खबर की शुरुआत में 2 लाइन की भूमिका इसलिए क्योंकि खबर 2 एकड़ और दिल्ली से जुड़ी है। खबर यह है कि कॉन्ग्रेस को पार्टी कार्यालय बनाने के लिए 2 एकड़ ज़मीन मिलती है… वो भी पूरी की पूरी मुफ्त। लेकिन जमीन चली जाती है गाँधी परिवार के पास!  

आसान शब्दों में कहें तो जो ज़मीन कॉन्ग्रेस को ऑल इंडिया कॉन्ग्रेस कमिटी के कार्यालय बनाने के लिए मिली, वह फिलहाल गाँधी परिवार के नाम है।

इसके लिए जितनी बार कॉन्ग्रेस की सरकार सत्ता में आई, हर बार अपनी सुविधानुसार नियमों में ऐसे बदलाव किए, जिनके माध्यम से वो 2 एकड़ ज़मीन पार्टी मुख्यालय के बजाय एक परिवार की होकर रह गई।

हैरानी की बात यह है कि इंदिरा गाँधी सरकार के समय से शुरू हुई यह प्रक्रिया यूपीए 2 के दौर तक चली।  

कौन-कौन सी सरकारें रहीं शामिल 

इस 2 एकड़ ज़मीन को अपने हिस्से में (मतलब गाँधी परिवार के लिए) करने के लिए कुल 4 बार बड़े पैमाने पर बदलाव किए गए। 

5 दशकों के दौरान चले इस ज़मीनी खींचतान की नींव पड़ी थी साल 1976 के दिसंबर महीने में यानी इंदिरा गाँधी की सरकार में। 

दूसरा बड़ा बदलाव हुआ साल 1988 के सितम्बर महीने में, यानी राजीव गाँधी की सरकार में।

तीसरा बड़ा बदलाव किया गया नरसिम्हा राव की सरकार में, दिसंबर 1995 में और अंत में सबसे बड़ा बदलाव हुआ यूपीए 2 की सरकार के अंतिम दिनों में, मई 2014 के दौरान।   

इन चार पड़ावों के ज़रिए कॉन्ग्रेस पार्टी मुख्यालय की ज़मीन, गाँधी परिवार के नाम हो गई। सबसे ज़्यादा हैरानी की बात यह है कि इस दौरान यहाँ पार्टी के किसी भी दूसरे या तीसरे व्यक्ति का आना वर्जित था। 

अब सवाल उठता है कि इतना कुछ हुआ कैसे? हुआ ऐसे कि सबसे पहले साल 1975 के सितम्बर महीने में लुटियंस दिल्ली के नज़दीक लगभग 1 एकड़ ज़मीन कॉन्ग्रेस पार्टी मुख्यालय बनाने के लिए जारी की गई।  

ज़रूरत पड़ने पर बदले गए नाम 

इस खेल में कई कारनामे किए गए। कभी कॉन्ग्रेस भवन ट्रस्ट का नाम बदल कर ‘जवाहर भवन ट्रस्ट’ कर दिया गया। 

फिर साल 1976 में अतिरिक्त ज़मीन भी दे दी गई। फिर सत्ता में आई राजीव गाँधी सरकार। इस सरकार ने वही ज़मीन जवाहर भवन ट्रस्ट के नाम कर दी। 

इसमें हैरान होने वाली कोई बात नहीं है कि इस ट्रस्ट के (ट्रस्टी) सदस्य कोई और नहीं बल्कि गाँधी परिवार के ही सदस्य हैं।  

साल 1995 में यह ज़मीन लगभग राजीव गाँधी फाउंडेशन के नाम कर दी गई और वह भी किराए पर। लेकिन ज़मीन के साथ खिलवाड़ की यह कहानी यहीं पर ख़त्म नहीं होती।

इस खेल में सबसे बड़ा कदम उठाया गया यूपीए 2 की सरकार में। जो ज़मीन पहले ही राजीव गाँधी फाउंडेशन को किराए पर मिली थी, उसे कई हिस्सों में गाँधी परिवार के दूसरे ट्रस्ट को बाँट दी गई। 

जिसमें मुख्य रूप से शामिल हैं:
राजीव गाँधी चैरिटेबल ट्रस्ट ब्राइट इंडिया फाउंडेशन ऑफिस ऑफ़ कमला नेहरु मेमोरियल हॉस्पिटल राजीव गाँधी इंस्टिट्यूट ऑफ़ कन्टेम्प्ररी स्टडीज़ यानी कुल मिला कर दिल्ली के सबसे चर्चित और प्रशासनिक इलाके की लगभग 2 एकड़ ज़मीन, जिसकी कीमत का अंदाज़ लगा पाना मुश्किल है, वह धीरे-धीरे देश के सबसे पुराने राजनीतिक परिवार की बपौती हो गई। 

एक राष्ट्रीय लोकतांत्रिक दल में इस बात से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा कि जो ज़मीन पार्टी मुख्यालय के लिए जारी की गई थी, वो परिवार की जागीर हो गई।

इतना ही नहीं, ज़मीन के लिए गाँधी परिवार ने एक रुपए भी नहीं चुकाए और न जाने कितने नियमों का उल्लंघन करते हुए उस पर कब्जा जमा कर बैठ गए! 

अब जबकि राजीव गाँधी फाउंडेशन के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय के उप-निदेशक की अगुवाई में पहले ही जाँच जारी है, ऐसे में इतना बड़ा खुलासा गाँधी परिवार की कार्यशैली की स्पष्ट तस्वीर पेश करता है।

( साभार : ऑपइंडिया )

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