मुझे कदम-कदम पर चौराहें मिलते हैं…

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नेशन अलर्ट/रायपुर।

गजानंद माधव मुक्तिबोध… आज बरबस ही बहुत याद आए। दरअसल, मुक्तिबोध आज ही के दिन अपने चाहने वालों को अकेला छोड़कर अपनी अनंतयात्रा पर निकल गए थे। अनंत में लीन होने से पहले उन्‍होंने एक कविता लिखी थी जिसकी पंक्तियां ‘मुझे कदम-कदम पर चौराहें मिलते हैं…’ जब सस्‍वर गाई गईं तो मुक्तिबोध को चाहने वाले अपनी आंखों में नमी रोक नहीं पाए।

भारत के युगांतकारी साहित्‍यकार गजानंद माधव मुक्तिबोध की 58वीं पुण्‍यतिथि पर उनके परिवार ने साहित्‍य अकादमी छत्‍तीसगढ़ के साथ मिलकर एक व्‍याख्‍यान का आयोजन किया था। आयोजन राजधानी के महंत घासीदास स्‍मारक संग्रहालय में हुआ। मुक्तिबोध और उनकी रचनाओं पर रौशनी डालने के लिए दिल्‍ली वि श्‍वविदद्यालय से हिंदी के प्रोफेसर विनोद तिवारी आए हुए थे।

कौन हैं तिवारी.. क्‍या कहा उन्‍होंने

विनोद तिवारी हिंदी साहित्‍य की चर्चित पत्रिका ‘पक्षधर’ के संपादक भी हैं। उन्‍होंने हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक जय प्रकाश की अध्‍यक्षता में आयोजित कार्यक्रम में मुक्तिबोध को न केवल जिया बल्कि उनकी रचनाओं पर उनकी कविताओं पर इतनी बारिकी से उन्‍होंने अपनी बात रखी कि श्रोता एक बार फिर अपने सामने मुक्तिबोध को जीवंत होते हुए देख रहे थे… सुन रहे थे।

तिवारी ने कहा कि अस्तित्व रक्षा और स्थिति रक्षा के संघर्ष से तो हर मनुष्य को गुजरना पड़ता है, मगर मुक्तिबोध ने जीवन दृष्टि और जीवन विवेक के निरंतर परिष्कार का जैसा संघर्ष किया वह हम लोगों के लिए एक मिसाल है। उन्होंने कहा कि जीवन में दोहरापन, दुराव-छिपाव और छल-छद्म बढ़ते जाने के हमारे दौर में मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में’ जैसी कविताओं की जरूरत बढ़ती जा रही है।

उन्‍होंने कहा कि लगातार आत्मनिरीक्षण और आत्मसंघर्ष से गुजरने के कारण ही मुक्तिबोध के लेखन में एक पूरी तैयारी दिखती है। मुक्तिबोध की खासियत थी कि वे किसी बने-बनाए सत्य या पहले से सिद्ध की गई बात से काम नहीं चलाते थे, बल्कि अपने प्रश्नों और खोज के जरिए नया संधान करते थे। मुक्तिबोध की रचनात्मक प्रवृति के केंद्र में आलोचनात्मक विवेक है।

तिवारी ने अपने करीब एक घंटे के सुगठित और सुलझे हुए व्याख्यान में कहा कि मुक्तिबोध कबीर, गालिब और निराला की परंपरा के रचनाकार थे, जो अपने मूल्यों और सिद्धांतों के लिए कोई जोखिम उठाने से पीछे नहीं हटते थे। उन्होंने मुक्तिबोध की तुलना शार्पनर से छिलने वाली पेंसिल से करते हुए कहा कि मुक्तिबोध ने लहुलुहान होकर ही अपनी तीक्ष्णता हासिल की थी।

दिल्‍ली के वक्‍ता ने कहा कि मुक्तिबोध ने आत्मनिरीक्षण और आत्मसंघर्ष की पीड़ा से गुजरते हुए अपना जीवन विवेक सृजित किया था। इसीलिए मुक्तिबोध की रचनाएं हमें अपनी तरफ इतना खींचती हैं। मुक्तिबोध किसी समय के साहित्य को समझने के लिए उस समय के सांस्कृतिक इतिहास को जानने की जरूरत रेखांकित करते थे।

अपने अध्यक्षीय संबोधन में आलोचक व विचारक जयप्रकाश ने कहा कि मुक्तिबोध को पढ़ना आज पहले की तुलना में आज और ज्यादा जरूरी हो गया है क्योंकि हमारी सभ्यता तेजी से निर्विवेकीकरण का शिकार हो रही है। मुक्तिबोध आज भी हमें राह दिखाते हैं, क्योंकि उनके जीने और रचने में कोई द्वैत नहीं है, उनके जीवन-विवेक और साहित्य-विवेक में कोई फांक नहीं है।

कार्यक्रम के शुरू में संगीतकार व गायक अजुल्का सक्सेना और वसु गंधर्व द्वारा की गई मुक्तिबोध की कविता ‘मुझे कदम-कदम पर चौराहे मिलते हैं’ की शानदार सांगीतिक प्रस्तुति को श्रोताओं ने खुले मन से सराहा।  मुक्तिबोध परिवार और साहित्य अकादमी द्वारा मुक्तिबोध की स्मृति में आयोजित इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में रायपुर व छत्तीसगढ़ के दूसरे नगरों से आए साहित्यकार व संस्कृतिकर्मी शामिल थे।

साहित्य अकादमी, छत्तीसगढ़ के अध्‍यक्ष ईश्वर सिंह दोस्त के मुताबिक कार्यक्रम में मुक्तिबोध के सुपुत्र दिवाकर मुक्तिबोध, गिरीश मुक्तिबोध, संजीव बख्शी, सुशील त्रिवेदी, त्रिलोक महावर, सुभाष मिश्रा, आनंद हर्षुल, नवल शुक्ल, आलोक वर्मा, मोइज कपासी, निर्मल आनंद, अरुण काठोटे, आनंद बहादुर, राजकुमार सोनी, उर्मिला शुक्ल, राहुल कुमार सिंह, सुधीर शर्मा, संजय शाम, प्रकाश उदय, राजेश गनोदवाले जैसे कई साहित्यकारों व संस्कृतिकर्मियों ने हिस्सा लिया।

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