स्वतंत्रता के लिए बड़ा खतरा है व्यक्ति-पूजा की भारतीय आदत

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भारत में हर समुदाय को अपना हीरो चाहिए. हीरो सिर्फ़ वर्तमान में नहीं चाहिए बल्कि इतिहास में भी चाहिए. जिसके पास इतिहास में हीरो नहीं है, वह ढूंढ रहा है, और अगर नहीं मिल रहा है तो बना रहा है.

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अरविन्द कुमार

ग़ुलामी को वैसे तो शारीरिक माना जाता रहा है, लेकिन ग़ुलामी मानसिक भी होती है. दोनों ही तरह की गुलामी एक दूसरे को पैदा करती हैं, और एक दूसरे को पुष्ट करती हैं. पश्चिमी देशों में ग़ुलामी को आम तौर पर शारीरिक ग़ुलामी के रूप में देखा जाता था.

इस विचार की नींव प्राचीन ग्रीक में पड़ी. इसके अनुसार, कुछ मनुष्य केवल ‘आदेश का पालन’ करने के गुण के साथ पैदा होते हैं, जबकि कुछ केवल ‘आदेश देने’ के गुण के साथ. ग़ुलामी की इस अवधारणा को ग्रीक दार्शनिक अरस्तू ने व्यवस्थित तरीके से परिभाषित किया है.

इस अवधारणा पर बनी व्यवस्था ने ग़ुलामी की प्रथा को जन्म दिया, जो कि पश्चिमी देशों में ख़ूब फली फूली. इसकी परिणति अश्वेत लोगों को बाज़ार में ख़रीदने-बेचने तक पहुंची.

उस दौर में कई लोग सैकड़ों और हजारों तक गुलाम रखते थे. इस तरह की ग़ुलामी का एक कारण ये भी था कि श्वेत लोग अश्वेतों को इंसान नहीं मानते थे. इस वजह से गुलाम रखने का गुलाम बनाने को लेकर उन्हें कोई अपराध बोध नहीं होता था.

इसी समझ की वजह से अफ़्रीका के जंगलों से अश्वेत लोगों को पकड़कर बाज़ार में जानवर की तरह ख़रीदा-बेचा जाता था. उपनिवेशवाद का वैचारिक आधार भी श्रेष्ठता की ये श्वेत अवधारणा ही थी कि सिर्फ़ ‘श्वेत मनुष्य’ ही शासन करने के लिए पैदा हुए हैं.

अपनी इस धारणा को फैलाकर ही ब्रिटेन, फ़्रांस, स्पेन और पुर्तगाल जैसे छोटे-छोटे देशों ने पूरी दुनिया पर सैकड़ों साल तक राज किया.

भारत में गुलामी का स्वरूप

रिपब्लिकन विचारकों के अनुसार मानसिक ग़ुलामी वह स्थिति है, जब कोई व्यक्ति अपने आपको किसी के हवाले कर दे, या फिर शारीरिक दंड के भय के बिना भी किसी का आधिपत्य स्वीकार कर ले और वो काम भी करे जो उसके अपने हितों के खिलाफ हो. ऐसी गुलामी भारत में पाई जाती है.

भारत में ग़ुलामी का स्वरूप ज्यादातर मानसिक ही रहा है. हालांकि भारतीयों की मानसिक ग़ुलामी का एक कारण उपनिवेशवाद भी रहा लेकिन ये कहना सही नहीं होगा कि भारतीयों की मानसिक गुलामी अंग्रेजों के आने के बाद शुरू हुई.

अंग्रेजों के भारत में आने से पहले भी यहां मानसिक ग़ुलामी ख़ूब फली-फूली, जिसके पीछे सामाजिक/धार्मिक मूल्य और रूढ़िवादी परम्पराएं रहीं. मानसिक ग़ुलामी को शास्त्रों का डर फैला कर क़ायम किया जाता रहा है.

पहले यह डर जन्म-मरण-पुनर्जन्म, भूत-पिशाच, देवी-देवता, शाप-वरदान, अवतारवाद आदि के नाम पर फैलाया जाता रहा, अब किसी जाति, धर्म या समुदाय विशेष का डर फैलाकर मानसिक गुलामी का लक्ष्य हासिल किया जाता है.

ग़ुलामी के ख़िलाफ़ संघर्ष

एक तरफ़ दुनिया भर में ग़ुलामी बढ़ी तो दूसरी तरफ़ थॉमस हॉब्स, जॉन लॉक, रूसो, इमैनुआल कांट, हीगल, साइमन दे बुआ जैसे दार्शनिकों के विचारों से प्रभावित होकर इसके ख़िलाफ़ दुनिया भर में ख़ूब संघर्ष भी हुए.

अब्राहम लिंकन, ज्योतिबा फुले, महात्मा गांधी, डॉ. बी.आर. आंबेडकर, मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मण्डेला आदि ने ग़ुलामी समाप्त करने के लिए लम्बी लड़ाई लड़ी.

भारत में मानसिक ग़ुलामी से आज़ादी की लड़ाई की शुरुआत महात्मा ज्योतिबा फुले ने की, जिन्होंने अपनी किताब ‘ग़ुलामगिरी’ में पाखंड और जातिवाद की ग़ुलामी से मुक्ति का रास्ता दिखाने की कोशिश की.

ज्योतिबा फुले की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए आंबेडकर ने भी वेदों-पुराणों-स्मृतियों का खंडन किया और मनुस्मृति जैसे ग्रंथ को सार्वजनिक रूप से जलाकर उसकी पवित्रता को चुनौती दी.

ग़ुलामी के ख़िलाफ़ लड़ाई को एक क़दम और आगे ले जाते हुए आंबेडकर ने इस बात को उजागर किया कि आधुनिक समय में मानसिक गुलामी राजनीति में कैसे हावी होती है?

आंबेडकर ने लिखा है कि राजनीति में व्यक्ति/राजनेता की पूजा या उसे नायक मानना एक तरीक़े की मानसिक गुलामी है. उन्होंने संविधान सभा के अपने आखिरी भाषण में नायक-पूजा को लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक बताया और इसे भारत को नई मिली आजादी के लिए खतरे के तौर पर चिन्हित किया.

भारत में व्यक्तिपूजा और मानसिक गुलामी

नायक की पूजा कई तरीक़े से होती है, जिसमें एक है किसी व्यक्ति को ‘महात्मा’ घोषित कर देना, तो दूसरा है व्यक्ति में ‘प्रकृति प्रदत्त ख़ास शक्ति’ के होने की बात को स्वीकार कर लेना.

जब लोग किसी व्यक्ति की पूजा करने लगते हैं, तो उसकी आलोचना से भड़क जाते हैं. इसे इस तरीक़े से भी समझा जाए कि अगर किसी व्यक्ति या राजनेता की आलोचना मात्र से कुछ लोगों की भावनाएं आहत होने लग जाएं, तो ऐसा समझा जाना चाहिए कि लोगों का वह समूह नायक-पूजा यानी मानसिक गुलामी का शिकार हो गया है.

नायक-पूजा करने वाले व्यक्ति में आत्मविश्वास कम हो जाता है. इसे भारत में प्रतिवर्ष बनने वाली सैकड़ों फ़िल्मों से समझा जा सकता है. हीरो के बिना भारतीय लोकप्रिय फिल्मों की कल्पना भी नहीं हो सकती.

जैसे फ़िल्मों में हीरो आख़िरी में सब कुछ ठीक कर देता है, वैसे ही आम ज़िंदगी में भी लोग सोचने लगते हैं कि एक दिन कोई हीरो आएगा और उनकी सभी समस्याओं का समाधान कर देगा. ऐसा सोचते हुए लोग अपनी सोच और मेहनत पर भरोसा खो देते हैं और हीरो का इंतज़ार करते रहते हैं.

भारत में हर समुदाय को अपना हीरो चाहिए. हीरो सिर्फ़ वर्तमान में नहीं चाहिए बल्कि इतिहास में भी चाहिए. जिसके पास इतिहास में हीरो नहीं है, वह ढूंढ रहा है, और अगर नहीं मिल रहा है तो बना रहा है.

नायक की पूजा का दूसरा नकारात्मक पहलू यह भी होता है कि वह व्यक्ति को ग़लत निर्णय लेने को प्रेरित करता है. विज्ञापनों से इसे समझा जा सकता है. ज़्यादातर लोग उन वस्तुओं का इस्तेमाल करते है, जिनके विज्ञापन कोई रोल मॉडल करता है. कंपनियों ने वर्षों के अनुभव से लोगों की इस मानसिकता को समझ लिया है.

लोगों की इस भावना को समझकर कंपनियां भी ब्रांड अंबेसडर बनाती हैं और ढेर सारा पैसा देकर क्रिकेटर या फिल्म स्टार से विज्ञापन करवाती हैं. ये मॉडल स्वास्थ्य से लेकर वित्त प्रबंधन तक के लोगों के निर्णय को प्रभावित करते हैं. ऐसा करके वे लोगों को ग़लत निर्णय लेने के प्रति प्रेरित करते हैं.

मानसिक गुलामी का अगला चरण बिग डाटा एनालिसिस और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के बढ़ते इस्तेमाल के साथ आने वाला है क्योंकि इन आंकड़ों के आधार पर लोगों की मानसिकता की बेहतर स्टडी कंपनियों और राजनीतिक दलों के पास होगी और वे इसके मुताबिक रणनीति बनाकर फायदा उठा रहे होंगे.

( साभार / दि प्रिंट. लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं)

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