भारत को जीतने में राहुल गांधी लगातार नाकाम, कोविड के साथ कांग्रेस संकट का भी अब तक नहीं है कोई इलाज़

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भारत को जीतने में राहुल गांधी लगातार नाकाम, कोविड के साथ

कांग्रेस पार्टी को बीजेपी से सीखने की ज़रूरत है कि पार्टी के भीतर गुटों और महत्वाकांक्षाओं को कैसे संभाला जाए.

नेशन अलर्ट / 97706 56789

संजय कुमार / चंद्रचूर सिंह

कांग्रेस की पहेली भी काफी कुछ कोरोनावायरस संकट की तरह है- दोनों अलग-अलग कारणों और लक्षणों पर फलते फूलते हैं.

जिस तरह कोविड-19 को ठीक करने के लिए कोई अकेली दवा नहीं है, उसी तरह कोई एक जवाब नहीं है जो कांग्रेस की समस्या से निपट सकता हो (सुलझाना तो दूर की बात है).

किसी वैक्सीन के आभाव में, सोशल डिस्टेंसिंग दुनिया भर में कोविड-19 के खिलाफ एक एहतियाती कदम बन गई है.

इसी तरह, कांग्रेस पार्टी को फिर से खड़ा करने के लिए भी मज़बूत केंद्रीय नेतृत्व ही एक मात्र रास्ता हो सकता है और जिस तरह सिर्फ ऊपर वाला ही जानता है कि महामारी कब खत्म होगी, ठीक उसी तरह सिर्फ भगवान ही हमें बता सकता है कि कांग्रेस कब फिर से प्रासंगिक होगी.

ये केवल नियमित रूप से सत्ता गंवाना नहीं है

लोकतांत्रिक राजनीति में, कोई दल हमेशा सत्ता में नहीं रह सकता इसलिए उनका चुनावों में जीतना और हारना सामान्य बात होती है.

इसलिए ये कांग्रेस के वर्तमान संकट का कारण नहीं हो सकता. भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) 1998 और 2004 में सत्ता में रहने के बाद, दस साल (2004-14) तक सत्ता से बाहर रही.

फिर भी वो ऐसे संकटों से निपटती रही, जो आज कांग्रेस के सामने हैं. इतनी पुरानी पार्टी एक मामले में अनोखी है कि भारी बहुमत से जीतने के बाद, सत्ता में रहते हुए भी बड़े पैमाने पर लोग इसे छोड़ गए हैं.

विचारधारा के मामले में ये कहना उचित होगा कि कांग्रेस पार्टी की (आधिकारिक) विचारधारा में मुश्किल से ही कोई बदलाव हुआ है.

स्पष्ट है कि कांग्रेस में संकट का कारण इसे भी नहीं बनाया जा सकता. कमज़ोर हो या मज़बूत, कांग्रेस नेताओं का वैचारिक जुड़ाव एतिहासिक रूप से एकरूप रहा है.

भारतीय मतदाताओं में पार्टी के वैचारिक झुकावों को लेकर बेचैनी हो सकती है लेकिन इसके नेताओं को आमतौर से ऐसे तनाव नहीं झेलने पड़ते.

कांग्रेस संकट के कारण

तीन संभावित और आपस में जुड़े हुए कारण हैं जो कांग्रेस के मौजूदा संकट की ओर इशारा करते हैं- कमज़ोर केंद्रीय नेतृत्व, पीढ़ियों का अंतर और युवा वर्ग की महत्वाकांक्षी शेखियां.

चलिए महत्वाकांक्षी युवा पीढ़ी पर एक नज़र डालते हैं- क्या राजनीति में महत्वाकांक्षी होना गलत है? कतई नहीं, क्योंकि जिस दुनिया में हम रहते हैं वहां सियासत कोई समाज सेवा नहीं है.

बल्कि वेबेरियन सेंस में कहें तो ये एक पेशा है, फायदेमंद करियर का मौका है. कहा जाता है कि राजनीतिक दल संगठित इकाई होते हैं जिनकी स्वैच्छिक सदस्यता होती है और जो राजनीतिक शक्ति के पीछे होते हैं.

उनके सदस्यों की आकांक्षा पार्टी में उच्च पदों पर पहुंचने और फिर जितना लंबा हो सके उनपर बने रहने की होती है.

स्वाभाविक है कि ये विशेषताएं पार्टी में गुटबाजी, दल-बदल, विघटन और विलय की प्रवृति को जन्म देती हैं.

इसलिए पार्टियों को हर समय सतर्क रहना होता है और सच कहें तो कांग्रेस इस कारनामे को बखूबी अंजाम देती रही है.

ज़रा याद कीजिए 1967, 1977, 1989 और 1999 के घटनाक्रम- जब बहुत से कांग्रेस नेता अपनी पार्टी छोड़कर या तो दूसरी पार्टी में चले गए या अपने खुद के संगठन बना लिए. लेकिन वो सारे संकट केवल कांग्रेस के मज़बूत केंद्रीय नेतृत्व की वजह से सुलझा लिए गए.

अस्तित्व के संकट से दोचार कोई भी पार्टी, शीर्ष पर बैठे अपने नेताओं के कारगर नेतृत्व की बदौलत, फिर से वापसी कर लेती है- भले ही इससे उस पार्टी की श्रद्धांजलि लिखने वाले स्तंभकार चिढ़ जाते हों.

बीजेपी ऐसे ही तर्क की दलील है, जो कांग्रेस की अपेक्षा अपने संख्या बल का ज़्यादा ध्यान रखती है.

ये बात हमें कांग्रेस के कमज़ोर केंद्रीय नेतृत्व के सबसे महत्वपूर्ण घटक की ओर ले आती है. 2014 और 2019 के बीच लोकनीति-सीएसडीएस सर्वेक्षणों के नतीजे बताते हैं कि जहां एक ओर बीते सालों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है, वहीं दूसरी ओर राहुल गांधी की अपील लगातार कम हो रही है.

2014 के शुरू में पीएम की कुर्सी के लिए मोदी केवल 34 प्रतिशत भारतीयों की पसंद थे जबकि 23 प्रतिशत आबादी की पसंद राहुल गांधी थे.

लेकिन 2019 तक मोदी की लोकप्रियता बढ़कर 46 प्रतिशत हो गई जबकि गांधी की गिरकर 19 प्रतिशत पर आ गई.

उस समय भी, जब कोविड-19 लॉकडाउन की अचानक घोषणा से देशभर के बेरोज़गार श्रमिकों के सामने अस्तित्व का खतरा पैदा हो गया था, इस बात के सबूत मिलते हैं कि मोदी की लोकप्रियता में मुश्किल से ही कमी आई.

और राहुल गांधी के प्रयासों के बावजूद लोगों को उनमें एक होनहार नेता नहीं दिखा. स्पष्ट है कि कांग्रेस के सामने एक बड़ी चुनौती है.

पीढ़ियों में गहराता विभाजन

ऐसा कमज़ोर केंद्रीय नेतृत्व पार्टी के बुज़ुर्ग और युवा नेताओं के बीच पीढ़ीगत विभाजन को पनपने का अवसर देता है जिसमें बुज़ुर्ग अनुभव को अपने दावे का आधार बनाते हैं जबकि युवा अपने जोश और उत्साह के चलते अपनी हिस्सेदारी चाहते हैं.

दुर्भाग्यवश, कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व इन दोनों विकल्पों के बीच पिसता हुआ दिख रहा है. राजस्थान इकाई के ताज़ा संकट ने इस विभाजन को और मज़बूत कर दिया है.

साथ मिलकर ये सारे घटक, उस पार्टी के सामने अजेय चुनौतियां पेश करते हैं जो मुख्यत: अपनी समझौता परक भावना की वजह से किसी समय देश के राजनीतिक परिदृष्य पर सबसे प्रमुख पार्टी थी.

दलगत राजनीति में गुटबाजी से पैदा हुए संकट निहित होते हैं और उन्हें सामान्य माना जा सकता है. कुछ सियासी पार्टियों में ये सामान्य से अधिक होता है जबकि दूसरी पार्टियों में ये असामान्य या वश में होता है.

मुद्दा ये होता है कि इन घटकों या बढ़ते विरोध को मैनेज किया जाए और ये बहुत कुछ निर्भर करता है पार्टी नेताओं पर, संकट को सुलझाने की उनकी सलाहियत पर और उनके काम करने के अंदाज़ पर.

लेकिन निराशा ये है कि कांग्रेस जिन संकटों से दोचार है, उनकी गंभीरता, उनका विस्तार और उनकी रेंज देखते हुए उनका कोई अंत नज़र नहीं आता.

तब भी, लोकतांत्रिक भावना में अगर विकल्पों की बात है तो फिर भारत के संसदीय लोकतंत्र को लचीले ढंग से चलाने के लिए फिर से जागी हुई और आत्मविश्वास से भरी कांग्रेस आवश्यक है.

हालांकि आगे का रास्ता इससे तय होगा कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व बहुत सारी चुनौतियों से कैसे निपटता है. क्या वो इनका सीधा मुकाबला करेगा या फिर इन्हें अपने संगठन में एक और लड़ाई मानते हुए गुज़र जाने देगा?

( साभार : दि प्रिंट / संजय कुमार सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज़ *सीएसडीएस* में प्रोफेसर हैं और डॉ चंद्रचूर सिंह दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिंदू कॉलेज में पोलिटिकल साइंस पढ़ाते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं .)

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