‘अवसर को आपदा’ में बदलने का कांग्रेस का इतिहास पुराना है

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अपर्णा द्विवेदी वरिष्ठ पत्रकार

नेशन अलर्ट / 97706 56789

राजस्थान में कांग्रेस का सियासी संकट अब कोर्ट पहुँच गया है. सचिन पायलट को राजस्थान के उप-मुख्यमंत्री और कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाए जाने के बाद विधानसभा अध्यक्ष ने सचिन के समर्थक विधायकों को नोटिस भेजा था, जिसके बाद उन्होंने राजस्थान हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है.


ऐसे में बहुत संभव है कि कांग्रेस पार्टी में अब सचिन पायलट के दिन गिनती के बचे हों. लेकिन क्या वो नई पार्टी बनाएँगे? इस पर भी संशय बना हुआ है.

इसी घटनाक्रम के बीच चर्चा हो रही है कि कांग्रेस अवसर को आपदा में बदलना खूब अच्छी तरह जानती है. हालाँकि ये व्यंग्य कांग्रेस नेतृत्व पर है, लेकिन कांग्रेस का इतिहास यही बताता है.

जब भी कांग्रेस के क़द्दावर नेता पार्टी छोड़ते हैं या निकाले जाते है, पार्टी के नेतृत्व और विचारधारा पर सवालिया निशान उठना शुरू हो जाता है, ख़ास तौर पर अब जबकि पिछले 70 साल में पार्टी की स्थिति सबसे बुरी है.

पर कांग्रेस में बग़ावत कोई नई बात नहीं है. अगर हम कांग्रेस के इतिहास पर नज़र डाले तो कांग्रेस में नेहरू के समय से लोग निकलते जुड़ते रहे हैं.

इंदिरा- राजीव की कांग्रेस

इतिहास के पन्नों को खंगालें, तो देश आज़ाद होने के तुरंत बाद 1948 में कांग्रेस पार्टी टूटी थी, जब जयप्रकाश नारायण सहित कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सारे नेता कांग्रेस से अलग हो गए थे.

जयप्रकाश नारायण यानी जेपी मानते थे कि नेहरू का विकास मॉडल महात्मा गांधी के विचारों से मेल नहीं खाता और यही विरोध उन्हें कांग्रेस पार्टी से दूर ले गया था और बाद में जेपी इंदिरा गांधी की सरकार के लिए सबसे घातक सिद्ध हुए.

इंदिरा गांधी के मृत्यु के बाद राजीव गांधी ने देश की राजनीति में क़दम रखा. हालाँकि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस में कई दिग्गज और वरिष्ठ नेता तो थे, लेकिन राजीव गांधी को इंदिरा का उत्तराधिकारी घोषित किया गया और उन्हें उसी दिन प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई.

वह भारत के सातवें प्रधानमंत्री बने. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद की सहानुभूति लहर ने 1984 के लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को 400 से अधिक सीटें दी. ये करिश्मा ऐसा था जो नेहरू और इंदिरा भी न कर सके.

लेकिन उसी राजीव गांधी को 1989 के लोकसभा चुनाव ने 200 से भी कम सीटों में समेट दिया.
राजीव गांधी की इस हार में अहम भूमिका रही उनकी सरकार में ही मंत्री रहे वीपी सिंह की.

विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स घोटाले का मुद्दा कुछ यूँ उछाला कि वो हर घर तक पहुँच गया.
राजीव गांधी के कुछ और क़रीबियों के साथ मिलकर वीपी सिंह बोफ़ोर्स के सहारे सत्ता के क़रीब पहुँच गए और 2 दिसंबर 1989 को उन्होंने प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली. हालाँकि उनकी सरकार ज़्यादा दिनों तक नहीं चली.

विश्वनाथ प्रताप सिंह राजीव गांधी के बहुत नज़दीकी सहयोगी थे और वित्त मंत्री बनाए गए. उन्होंने देश के बड़े उद्योगपतियों के ख़िलाफ़ टैक्स चोरी की कार्रवाई की. बाद में रक्षा मंत्री बनने पर उन्होंने बोफ़ोर्स तोप में घोटाले की बात कर राजीव गांधी की लपेटे में ले लिया और पार्टी छोड़ दी और जनता दल में शामिल हुए.

साल 1989 में देश में लोकसभा चुनाव संपन्न हुआ. कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी लेकिन, सरकार बनाने की जगह पार्टी ने विपक्ष में बैठने की ठानी. विश्वनाथ प्रताप सिंह भारत के प्रधानमंत्री बनें.

क्षेत्रीय दलों का गणित

हालांकि इंदिरा गांधी के समय से क्षेत्रीय दल आते रहे लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें मज़बूती 1989 में मिली. 1989 के आम चुनावों में राजीव गांधी की कांग्रेस को अब तक ही सबसे ताक़तवर चुनौती का सामना करना पड़ा.

दक्षिण में डीएमके, पश्चिम बंगाल में सीपीएम, पंजाब में अकाली और आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव की तेलुगू देसम पार्टी काफ़ी मज़बूत स्थिति में थी.

लेकिन पहले वीपी सिंह और फिर चंद्रशेखर की सरकार गिरने के बाद 1991 में फिर से लोकसभा चुनाव हुए.

1991 में चुनाव प्रचार के दौरान राजीव गांधी की असमय मौत ने पीवी नरसिंह राव को प्रधानमंत्री पद पर बैठाया लेकिन ये क़दम कांग्रेस के पुराने नेताओ का काफी खला और नारायण दत्त तिवारी,अर्जुन सिंह, माधव राव सिंधिया, शीला दीक्षित जैसे नेताओं ने पार्टी छोडी.

हालाँकि बाद में ये सारे नेताओं ने कांग्रेस में वापसी की और कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़ कर महत्वपूर्ण पदों पर बने रहे.

सोनिया गांधी की कांग्रेस

मई 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया गांधी से पूछे बिना उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाए जाने की घोषणा कर दी, लेकिन सोनिया ने इसे स्वीकार नहीं किया और कभी भी राजनीति में नहीं आने की कसम खाई थी. सोनिया ने राजीव गांधी फाउंडेशन की स्थापना के साथ ख़ुद राजनीति से दूर रखने की कोशिश की.

इसके बाद 1996 में नरिसम्हा राव की सरकार जाने के बाद पार्टी की चिंता और बढ़ गई. इस चुनाव में बीजेपी और जनता दल ने भारी बढ़त हासिल की और बीजेपी ने गठबंधन सरकार बनाई.

कांग्रेस की हालत दिन-ब-दिन बुरी होती देख सोनिया गांधी ने कांग्रेस नेताओं के दबाव में 1997 में कोलकाता के प्लेनरी सेशन में कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता ग्रहण की. जिसके बाद अप्रैल 1998 में वो कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं.

सोनिया गांधी के अध्यक्ष पद पर रहते बग़ावत करने वाले सबसे बड़े नेता थे शरद पवार, जिन्होंने नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी का गठन किया. ममता बनर्जी पहले ही कांग्रेस से अलग हो चुकी थीं.
आने वाले समय में कांग्रेस को इस तरह के कई झटके लगे.

इनमें से एक बड़ा झटका वाईएस राजशेखर रेड्डी के लड़के जगन मोहन रेड्डी का 2010 में पार्टी छोड़कर अपनी नई पार्टी का गठन था. आज जगन मोहन रेड्डी की पार्टी वाईएसआर कांग्रेस सत्ता में है और वे आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं.

शरद पवार

1991 में शरद पवार ख़ुद प्रधानमंत्री पद की रेस में शामिल थे, लेकिन बाद में यह कुर्सी पीवी नरसिम्हा राव को नसीब हुई. पवार कई मौक़ों पर कहते रहे हैं कि सोनिया गांधी के ‘वीटो’ की वजह से वे 1991 में प्रधानमंत्री नहीं बन पाए.

उन्होंने अपनी किताब ‘लाइफ ऑन माई टर्म्स – फ्रॉम ग्रासरूट्स एंड कॉरीडोर्स ऑफ पावर’ में लिखा है कि साल 1991 में 10 जनपथ के ‘स्वयंभू वफादारों’ ने सोनिया गांधी को इस बात के लिए सहमत किया था कि उनकी (पवार) जगह पीवी नरसिंहराव को प्रधानमंत्री बनाया जाए, क्योंकि ‘गांधी परिवार किसी ऐसे व्यक्ति को पीएम नहीं बनाना चाहता था, जो स्वतंत्र विचार रखता हो.

सोनिया के कांग्रेस अध्यक्ष बनते हुए उन्होंने अपनी नई पार्टी नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी बनाई. हालाँकि यूपीए की गठबंधन सरकार में उनकी पार्टी ने कांग्रेस की सरकार को समर्थन दिया था और अभी भी महाराष्ट्र में चल रही सरकार में कांग्रेस गठबंधन का हिस्सा है.

ममता बनर्जी

ममता का राजनीतिक सफ़र 21 साल की उम्र में साल 1976 में महिला कांग्रेस महासचिव पद से शुरू हुआ था. वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में पहली बार मैदान में उतरीं ममता ने माकपा के दिग्गज नेता सोमनाथ चटर्जी को पटखनी देते हुए धमाके के साथ अपनी संसदीय पारी शुरू की थी.

राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहने के दौरान उनको युवा कांग्रेस का राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया. कांग्रेस-विरोधी लहर में वर्ष 1989 में वे लोकसभा चुनाव हार गई थीं.

लेकिन ममता ने हताश होने की बजाय अपना पूरा ध्यान बंगाल की राजनीति पर केंद्रित कर लिया. वर्ष 1991 के चुनाव में वे लोकसभा के लिए दोबारा चुनी गईं. उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा.

उस साल चुनाव जीतने के बाद पीवी नरसिंह राव मंत्रिमंडल में उन्होंने युवा कल्याण और खेल मंत्रालय का जिम्मा संभाला.

लेकिन केंद्र में महज दो साल तक मंत्री रहने के बाद ममता ने केंद्र सरकार की नीतियों के विरोध में कोलकाता की ब्रिगेड परेड ग्राउंड में एक विशाल रैली का आयोजन किया और मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया.

तब उनकी दलील थी कि वह राज्य में माकपा की अत्याचार के शिकार कांग्रेसियों के साथ रहना चाहती हैं.

ममता के राजनीतिक जीवन में एक अहम मोड़ तब आया जब वर्ष 1998 में कांग्रेस पर माकपा के सामने हथियार डालने का आरोप लगाते हुए उन्होंने अपनी नई पार्टी तृणमूल कांग्रेस बना ली.

ममता की पार्टी ने जल्दी ही कांग्रेस से राज्य के मुख्य विपक्षी दल की गद्दी छीन ली. साल 2011 के विधानसभा चुनावों में उन्होंने अकेले अपने बूते ही तृणमूल कांग्रेस को सत्ता के शिखर तक पहुंचा दिया.

इसके अलावा जीके वासन ने अपने आप को कांग्रेस से अलग कर अपनी पार्टी बनाई.

जगनमोहन रेड्डी

2009 में आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. वाईएस राजशेखर रेड्डी की हेलिकॉप्टर दुर्घटना में मौत हो गई थी. इस मौत के बाद से ही उनके बेटे वाईएस जगनमोहन रेड्डी आंध्र प्रदेश में सियासी ख़ालीपन को भरने की कोशिश कर रहे थे.

2009 में वो कडप्पा लोकसभा क्षेत्र से सांसद बने. अगर उनके पिता जीवित होते तो जगन भी कांग्रेस में होते. पिता के असामयिक निधन के बाद जगन को कांग्रेस में मन मुताबिक़ तवज्जो नहीं मिली और उन्होंने कांग्रेस से अलग राह चुन ली.

राहुल गांधी की कांग्रेस

राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बने और 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद इस्तीफा दे दिया. राहुल ने 2004 में अमेठी में अपने पिता के निर्वाचन क्षेत्र से पहला लोकसभा चुनाव लड़ा लेकिन 2019 के चुनाव में उनकी सीट बीजेपी के खाते में चली गई.

राहुल गांधी ने यूपीए गठबंधन की सरकार के दौरान सक्रिय राजनीति में क़दम रखा लेकिन सरकार और पार्टी में कोई पद लेने से बचते रहे.

2007 में उन्हें कांग्रेस कमेटी का महासचिव नियुक्त किया और 2017 में वो कांग्रेस के अध्यक्ष बने. हालाँकि उनके साथ के कई क़रीबी नेता पार्टी से किनारा करते जा रहे हैं.

राहुल गांधी जब राजनीति में आए तो माना जा रहा था कि कांग्रेस में युवा नेताओं का दौर आने वाला है. इसमें ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, प्रिया दत्त, मिलिंद देवड़ा आदि शामिल थे और वे राहुल के क़रीबी भी माने जाते थे.

2014 के चुनाव में पटखनी खाने के बाद कांग्रेस में इस बात की ज़रूरत महसूस की जाने लगी कि नए दौर की राजनीति में अनुभव और जोश का संगम ज़रूरी है.

पुराने नेताओं के साथ साथ युवाओं को नए दौर की राजनीति के लिए तैयार करना ज़रूरी है, लेकिन यहीं पर कांग्रेस में मतभेद दिखने लगे. जहाँ एक तरफ राज्य के चुनाव में कांग्रेस ने सत्ता अनुभव को दी लेकिन जोश को संभालने में चूकने लगी.

कांग्रेस ने मध्य प्रदेश और राजस्थान में सरकार का गठन किया लेकिन बचा नहीं पाए. मध्य प्रदेश में राहुल के काफ़ी पुराने दोस्त रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बीजेपी का दामन थामा तो राजस्थान में सचिन पायलट अपनी सरकार का विरोध करने की वजह से निशाने पर हैं. अब राजनीति गलियारों में चर्चा है कि बग़ावत के इस दौर में कौन कौन शामिल होगा.

लेकिन इतिहास गवाह है कि राजनीति में कोई दुश्मन या दोस्त नहीं होता. सत्ता की लड़ाई है और सत्ता के क़रीब आते ही दुश्मनी दोस्ती में बदल जाती है. कांग्रेस के अब तक के इतिहास में यही दिखता है.

( साभार : बीबीसी )

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