भारत का प्रदूषण से डर, लेकिन कोयले से मोहब्बत

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नवीन सिंह खड़का, पर्यावरण संवाददाता


भारत ने पहली बार ‘क्लाइमेट असेसमेंट रिपोर्ट’ जारी किया है जिसमें मौजूदा हालात की ख़राब तस्वीर पेश की है और भविष्य के लिए चेतावनी जारी की गई है.

ये रिपोर्ट ऐसे वक्त में जारी की गई है जब कोरोना महामारी की मार से जूझ रही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए भारत ने ऊर्जा के स्रोत के तौर पर कोयले को अपनाया है.

भारत ने प्राइवेट सेक्टर के लिए अपने कोयले की खदानों के दरवाज़े खोल दिए हैं और वो भी तब जब कि कोयले को क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) का सबसे बड़ा गुनहगार माना जाता है.

भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ़ अर्थ साइंसेज़) ने ‘असेसमेंट ऑफ़ क्लाइमेट चेंज ओवर द इंडियन रीजन’ नाम से ये रिपोर्ट जारी की है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि देश पहले से मौसम की ख़राब परिस्थितियों का सामना कर रहा है. दुनिया भर में चल रहीं इंसानी गतिविधियां क्षेत्रीय पर्यावरण में बदलावों के लिए मुख्यतः जिम्मेदार हैं.

जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार इंसानी गतिविधियों में प्रमुख है, जीवाश्म ईंधन की खपत और उसमें कोयले को सबसे गंदा ईंधन माना जाता है.

क्या कहती है रिपोर्ट?

कोयला बेहद उच्च स्तर पर कार्बन डॉयक्साइड का उत्सर्जन करता है. ये वो ग्रीन हाउस गैस है जो वायुमंडल की गर्मी को रोक कर ग्लोबल वॉर्मिंग का कारण बनता है और यही हालात हमें जलवायु परिवर्तन की तरफ़ ले जाते हैं.

प्रमुख कोयला उत्पादक देशों में से एक भारत चीन और अमरीका के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश है. और भौगोलिक दृष्टि से भी भारत धरती के उस हिस्से में स्थित है जो जोखिम वाले जलवायु क्षेत्रों में से एक माना जाता है.

पहली ‘क्लाइमेट असेसमेंट रिपोर्ट’ में कहा गया है कि भारत को लगातार सूखा, भीषण बारिश और ख़तरनाक़ चक्रवातीय तूफान का सामना करना पड़ रहा है. ये प्राकृतिक आपदाएं बार-बार ज़्यादा गंभीर रूप से आ रही हैं.

रिपोर्ट के अनुसार अगर कार्बन उत्सर्जन की यही स्थिति रही तो इस सदी के आख़िर तक देश का औसत तापमान चार डिग्री से ज़्यादा और गर्म हवाओं का जोख़िम तीन से चार गुणा बढ़ जाएगा. एक दशक के भीतर दो बार से ज़्यादा भीषण सूखा पड़ सकता है.

देश को नुक़सान

‘क्लाइमेट असेसमेंट रिपोर्ट’ के अनुसार जलवायु परिवर्तन देश के लगभग हर सेक्टर को नुक़सान पहुंचाने जा रहा है.

“भारत की जलवायु में जो त्वरित बदलाव होने के अनुमान लगाए गए हैं, उससे देश के नैचुरल इकोसिस्टम (प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र), कृषि उपज और प्राकृतिक जल संसाधनों पर दबाव बढ़ता चला जाएगा. इससे देश की जैव विविधता, भोजन, पानी, ऊर्जा सुरक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ सकता है.”

वैज्ञानिकों का कहना है कि पेरिस क्लाइमेट चेंज समझौते के तहत देशों ने विश्व के औसत तापमान में दो डिग्री की वृद्धि की स्थिर रखने के लिए कार्बन उत्सर्जन में जितनी कटौती का वादा किया है, उन्हें उससे पांच गुणा ज्यादा कटौती करनी होगी.

कोरोना महामारी के पहले हालात अलग थे लेकिन महामारी के बाद इस बात की आशंकाएं जताई जा रही हैं कि कार्बन उत्सर्जन बेहिसाब तरीके से बढ़ सकता है क्योंकि बहुत से देश ये कोशिश करेंगे कि जितनी जल्दी हो सके, वे अपनी अर्थव्यवस्थाओं को पटरी पा ला सकें.

और इस बात के लिए भी चेतावनी भी दी गई है कि इससे जलवायु संकट और बिगड़ सकता है. हालांकि अर्थव्यवस्थाओं को पटरी पर लाने के लिए जो योजनाएं अपनाई जा रही हैं, उनमें साफ-सुथरी और कम कार्बन उत्सर्जन करने वाले मॉडल को अपनाने का आह्वान किया गया है.

रिपोर्ट की चेतावनी

भारत की जलवायु रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 1951 से 2015 के दरमियां गर्मियों में होने वाली मॉनसून की बारिश में छह फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है.

रिपोर्ट के मुताबिक़ गंगा के मैदानी इलाकों और पश्चिमी घाट के हिस्से में ये गिरावट ज़्यादा गौर करने वाली है.

इतना ही नहीं, साल 1901 से साल 2018 के बीच देश का औसत तापमान 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है.

रिपोर्ट के अनुसार, पहले जितनी देर तक गर्म हवाएं चला करती थीं, अब उससे दो गुने वक्त तक चलेंगी.

साल 1951 से साल 2016 के बीच सूखा पड़ने की घटनाएं और इससे प्रभावित होने वाले इलाकों का दायरा काफी हद तक बढ़ गया है.

पिछले दो दशकों में मॉनसून के बाद आने वाले भीषण चक्रवातीय तूफान की घटनाएं अब बार-बार हो रही हैं.

क्लाइमेट-स्मार्ट नीतियां

समुद्र में जलवायु परिवर्तन के असर पर दो साल पहले आई एक सरकारी रिपोर्ट में भी चक्रवातीय तूफानों को लेकर आगाह किया गया था.

दुनिया भर के नेता इस बात का समर्थन कर रहे हैं कि अर्थव्यवस्थाओं को पटरी पर लाने के लिए क्लाइमेट-स्मार्ट नीतियां (यानी पर्यावरण का संरक्षण करने वाली पॉलिसी) अपनाई जानी चाहिए ताकि किसी जलवायु संकट की संभावित ख़तरे को टाला जा सके.

लेकिन हकीकत तो ये है कि बहुत से देश इस दिशा में कुछ भी नहीं कर रहे हैं कि क्योंकि कोरोना महामारी से उपजे हालात ने उनके हाथ बांध रखे हैं.

ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया की 50 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं ने कोरोना महामारी से अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए 12 खरब डॉलर की रकम खर्च करने का वादा किया है.

लेकिन इस रकम के अठन्नी के बराबर की रकम भी पर्यावरण को बचाने वाली आर्थिक गतिविधियों के मद में नहीं रखी गई है.

भारत का कोयला क्षेत्र

भारत के 41 कोयला खदानों को प्राइवेट सेक्टर के लिए खोलने की घोषणा करते वक़्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले हफ़्ते कहा था, “कोयले के उत्पादन में वृद्धि करने से ऊर्जा उत्पादन बढ़ेगा. इसके साथ ही स्टील, एल्यूमिनियम, सीमेंट और फर्टिलाइज़र सेक्टर में भी उत्पादन बढ़ेगा.”

भारत ने साल 2018 में 675 मिलियन टन कोयले का उत्पादन किया था. देश के बिजली उत्पादन का 70 फीसदी से भी ज्यादा कोयले से चलने वाले पावर प्लांट्स से तैयार होता है.

प्रधानमंत्री मोदी ने ये भी कहा कि देश के 16 ज़िलों में कोयले का विशाल भंडार है और इनके दोहन के लिए बुनियादी ढांचे के विकास के लिए 500 अरब रुपये का निवेश किया जाएगा.

उन्होंने ये भी कहा कि खनन से निकाले गए कोयले को गैस में बदला जाएगा ताकि पर्यावरण का संरक्षण किया जा सके.

लेकिन सवाल उठता है कि क्या ऐसी कोई टेक्नोलॉजी उपलब्ध है और इसमें कितना खर्च आएगा?

( साभार : बीबीसी वर्ल्ड सर्विस )

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