पप्पू से बाहुबली तक का सफर, 6 कारण राहुल गांधी की जीत के

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अरूण पांडेय


राहुल ने तात्कालिक परेशानियों की जानकारियां मंगवाई और क्षेत्रवार उनके निराकरण की घोषणा की। जैसे कर्जमाफी, बेरोजगार भत्ता, हर पंचायत स्तर पर गौ शाला जो यथार्थ की जमीन पर उतर पाना एक लगभग असंभव कार्य है। यदि 35 लाख बेरोजगारों को 10 हज़ार प्रतिमाह दिया तो प्रदेश का 26 फीसद बजट इसी में चला जायेगा। 30 हज़ार पंचायतों में गौशालाओं का निर्माण भी दूसरा असंभव कार्य है और किसानों की कर्जमाफी पर बोल ही चुके हैं की यह ठीक कदम या हल नहीं।

किसानों, व्यापारियों और सवर्णों की नाराजगी
मध्यप्रदेश की जनता का मन भांपना इतना आसान नहीं है। चुनावी साल में आरक्षण को लेकर मचे बवाल ने कांग्रेस की राह मजबूत कर दी। एससी-एसटी एक्ट को लेकर भी सवर्णों में गुस्सा देखा गया जो मतदान के दिन सामने आया। मंदसौर से भड़की किसान आंदोलन की आग बाहर से भले बुझ गई थी, पर उसकी चिंगारी अंदर ही अंदर धधक रही थी। जीएसटी और नोटबंदी से मिला दर्द भी जनता भूली नहीं थी। कांग्रेस ने किसानों की कर्ज माफी और बिजली बिल आधा करने का जो वादा किया, वो शायद काम कर गया।

आक्रामक चुनावी अभियान
ज्योतिरादित्य सिंधिया, प्रदेश में चुनावी अभियान के संयोजक थे। उन्हीं के नेतृत्व में पार्टी के चुनाव अभियान की रणनीति रची गई। इस बार कांग्रेस का चुनावी अभियान खासा आक्रामक नजर आया। फिर चाहे राहुल गांधी से लेकर कमलनाथ और ज्योतिरादित्य के शिवराज पर निजी हमले हों, नए नारों का उछाला जाना या राहुल गांधी की रैलियां। कांग्रेस के पास जो कुछ था, झोंक दिया। भाजपा ने बयानों का एक वार किया तो कांग्रेस की तरफ से तुरंत पलटवार हुआ। प्रदेश में पार्टी अध्यक्ष कमलनाथ ने लंबा-चौड़ा दौरा किया। छोटे-छोटे धड़ों से अलग से मुलाकात की। हालांकि, कुछ वीडियो को लेकर वो घिरते भी दिखे लेकिन अब वो राहत की सांस ले सकते हैं।

काम आया राहुल गांधी फैक्टर
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ये बात बखूबी समझते हैं कि लोकसभा चुनाव से पहले सत्ता का ‘सेमीफाइनलÓ कहे जा रहे ये चुनाव कांग्रेस के लिए ‘करो या मरोà वाले थे। शायद यही वजह रही कि जहां प्रधानमंत्री मोदी ने इन चुनावों के दौरान कुल 32 रैलियां कीं वहीं, राहुल गांधी ने दोगुनी से ज्यादा यानी 77 रैलियां कीं।
मध्यप्रदेश में वो खास तौर पर सक्रिय रही। इसकी भी खास वजह थी। दरअसल, राजस्थान में बीते 25 साल का रिकॉर्ड देखें तो भाजपा-कांग्रेस को जनता ने एक-एक बार मौका दिया है। पार्टी को उम्मीद थी कि ये रिकॉर्ड इस बार भी बरकरार रहेगा।
लेकिन मध्यप्रदेश में बीते तीन बार से काबिज शिवराज को हटाना आसान नहीं था। जाहिर है, राहुल गांधी ने खुद मोर्चा संभाला और लड़ाई का नेतृत्व किया। इसके अलावा राहुल के लिए ये गुजरात की हार के बाद अपनी खोई जमीन वापस पाने का भी एक मौका बन गया।

अंदरूनी लड़ाइयां नहीं हुईं हावी
बीच चुनाव में एकबारगी तो कांग्रेस के खेमे से ऐसी खबरें उड़ीं कि अंदरूनी खींचतान में सब मिटता दिखाई देने लगा। टिकट बंटवारे को लेकर दिग्विजय और ज्योतिरादित्य की तूतू-मैंमैं की खबरें सामने आने लगीं। लेकिन जल्द ही सब संभाल लिया गया। ऐसी खबरों की आग पर बयानों की बाल्टी से इतना पानी उड़ेला गया कि सब धुल सा गया।

बागियों पर लगाम
बागियों पर लगाम कसने में भी कांग्रेस कामयाब रही। एक तो भाजपा के मुकाबले कांग्रेस में कम नेता बागी हुए। जो हुए, उन्हें जल्द काबू कर लिया गया। बागियों को काबू करने की जिम्मेदारी दो बार मुख्यमंत्री रह चुके दिग्विजय सिंह ने संभाली। कुछ को पार्टी से बाहर का रास्ता भी दिखाया गया।

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