श्योपुर… जिसे भारत का इथोपिया कहा जाता है

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भोपाल।

मुद्दे से दूर भागते राजनीतिक दल भटके हुए नजर आते हैं. शायद यही वजह है कि जिस राज्य में 2 साल के भीतर 57 हजार बच्चों की कुपोषण से मौत हो जाती है लेकिन इसे चुनावी मुद्दे से दूर रखा जाता है. विकास और स्वास्थ्य क्षेत्र में अपनी उपलब्धियों को गिनाते न थकने वाली सरकार इस मामले में कतई सफल नहीं रही है।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जनवरी 2016 से जनवरी 2018 के बीच राज्य में 57,000 बच्चों ने कुपोषण के कारण दम तोड़ दिया था. कुपोषण की वजह से ही श्योपुर जि़ले को भारत का इथोपिया कहा जाता है.

भारत का इथोपिया कहे जाने वाले श्योपुर जि़ले में कुपोषण की आपदा से कई घरों के चिराग मां की गोद में ही बुझ गए. सितंबर 2016 में जि़ले में कुल 116 बच्चों की मौत कुपोषण के चलते हुई. जिसने उन सरकारी दावों की पोल खोलकर रख दी जिनमें बच्चों को दिए जाने वाले पोषण आहार से संबंधित दावे बढ़-चढ़कर किए जाते थे.

विपक्ष और मीडिया के घेरे जाने से प्रशासन से लेकर शासन तक के माथे पर बल पड़ा तो अपने मंत्रियों और विभागों के साथ एक बैठक में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ऐलान किया कि सरकार कुपोषण पर ‘श्वेत पत्र’ लेकर आएगी.

श्वेत पत्र का अर्थ था कि राज्य सरकार कुपोषण के मुद्दे के हर पहलू पर बात करती. इस समस्या की गहराई में जाती. अपनी योजनाओं के क्रियान्वयन की विधियां गिनाती, अपनी उपलब्धियां और सफलता बताती, विफलताएं और कुपोषण से आगे कैसे लडऩा है, यह नीति बनाती और समस्या से संबंधित विभिन्न आंकड़ें पेश करती.

लेकिन, घोषणा के एक महीने के भीतर श्वेत पत्र लाने का वादा करने वाली सरकार महीने दर महीने बीतते गए लेकिन आज दो साल बाद भी श्वेत पत्र नहीं ला सकी है.

ऐसा भी नहीं है कि इस बीच कुपोषण के मामलों पर लगाम कसी हो जिससे सरकार को श्वेत पत्र लाने की आवश्यकता न रही हो. प्रदेश के महिला एवं बाल विकास विभाग के आंकड़े ही बताते हैं कि प्रदेश में कुपोषण से हर रोज़ 92 बच्चे मरते हैं.

इस वर्ष के शुरुआत में विधानसभा में एक सवाल के जवाब में राज्य की महिला एवं बाल विकास मंत्री अर्चना चिटनिस ने जनवरी 2018 तक के कुपोषण संबंधी आंकड़े पेश किए थे. उनके मुताबिक जनवरी 2016 में जहां कुपोषण से प्रदेश में दम तोडऩे वाले बच्चों की संख्या 74 थी, वह जनवरी 2018 में बढ़कर 92 हो गई.

विभाग के आंकड़ों के मुताबिक ही जनवरी 2016 से जनवरी 2018 के बीच प्रदेश में 57,000 बच्चों ने कुपोषण से दम तोड़ा था. वहीं, जून माह में विधानसभा में एक सवाल के जबाव में अर्चना चिटनिस द्वारा बताया गया कि फरवरी से मई 2018 के बीच 7,332 बच्चों की मौत हुई.

गौरतलब है कि ये सभी सरकारी आंकड़े हैं और ऐसा प्रचलित है कि सरकारी आंकड़ों में अक्सर पीडि़तों की संख्या कम ही दर्शाई जाती है. इस लिहाज़ से भी देखें तो समझ आता है कि वास्तविक संख्या कितनी अधिक रही होगी.

यथार्थ तो यह है कि देशभर में सर्वाधिक शिशु मृत्यु दर मध्य प्रदेश में ही है. वर्षों से प्रदेश इस मामले में अव्वल बना हुआ है. वहीं, मातृ मृत्यु दर के मामले में भी इसका देश में पांचवां स्थान है.

फिर क्यों राज्य सरकार इन कारणों को नजरअंदाज़ किए हुए है और श्वेत-पत्र लाने से कतरा रही है?

मध्य प्रदेश में कुपोषण और बाल स्वास्थ्य पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत दुबे बताते हैं, ‘जहां तक कुपोषण की बात है तो वह अब तक न तो प्रदेश में और न ही श्योपुर जि़ले में कम हुआ है. अभी पिछले ही दिनों श्योपुर जि़ले के विजयपुर ब्लॉक में कुपोषण से फिर से मौत हुई है.’

गौरतलब है कि विजयपुर की इकलौद पंचायत के झाड़बड़ौदा गांव में जून-जुलाई माह में दो हफ्तों के भीतर पांच बच्चों की मौत हो गई थी.

वे सरकार द्वारा श्वेत-पत्र न लाने के कारणों पर बात करते हुए कहते हैं, ‘बहुत सारे मसले हैं जिनके चलते सरकार ने घोषणा करने के बाद भी अपने क़दम पीछे खींच लिए. पहला कि लगभग ढाई दशक पहले सुप्रीम कोर्ट ने कुपोषण समाप्ति के लक्ष्य तक पहुंचने के संबंध में कहा था कि मध्य प्रदेश में 1,36,000 आंगनबाड़ी केंद्रों की ज़रूरत है. लेकिन वर्तमान स्थिति यह है कि प्रदेश में केवल 96,000 केंद्र ही हैं. वे श्वेत-पत्र लाएंगे तो प्रदेश में 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की संख्या और आंगनबाड़ी केंद्र कितने कम हैं, यह बताना पड़ेगा. जिससे उनकी नाकामी उजागर हो जाएगी कि परिवार के बाद जिस आंगनबाड़ी केंद्र से एक बच्चे का पहला वास्ता होता है, प्रदेश में वही नहीं बन पाए हैं.’

वे कहते हैं, ‘एक आंगनबाड़ी केंद्र द्वारा अगर 40 बच्चों तक पहुंचने को ही लक्ष्य मान लें तो 40,000 केंद्रों की कमी होने का मतलब है कि 16 लाख बच्चों तक तो सरकार पहुंच ही नहीं पाई है.’

इसी तरह कुछ अन्य कारण वे और गिनाते हुए कहते हैं, ‘पलायन कुपोषण के पीछे का एक अहम कारण है. लोगों को रोजग़ार के मौके उपलब्ध कराने की बात की गई थी ताकि वे पलायन न करें और बच्चों के पोषाहार व स्वास्थ्य पर इसका विपरीत असर न पड़े. लेकिन, पिछले सालों में केवल एक प्रतिशत लोगों को ही मनरेगा में यहां सौ दिन का रोजगार मिल पाया है.Ó

मध्य प्रदेश के श्योपुर में कुपोषण के लिए जिम्मेदार कौन?

प्रशांत दुबे के अनुसार, ‘वहीं, दूसरी ओर टीकाकरण का भी लक्ष्य पूरा नहीं हो पा रहा है. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून में कहा गया था कि मोटे अनाज गरीबों को मिल पाएंगे, खासकर कि जिन समुदायों में कुपोषण है. वो भी अब तक पूरी तरह लागू नहीं हो पाया है. मोटे अनाज थाली से गायब हो गए हैं. सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत मिलने वाले अनाज में दाल एक प्रोटीन माध्यम के तौर पर शामिल थी, तो वो भी नहीं मिल रही.’

वे आगे कहते हैं, ‘ये सभी चीज़ें कुपोषण के कारकों के तौर पर एक-दूसरे से जुड़ी हैं. काम मिलेगा तो लोग निश्चित उसका एक हिस्सा पोषण पर ख़र्च करेंगे. काम नहीं है तो वे पलायन करते हैं. जिस दौरान खाना सेकंडरी चीज़ हो जाता है. काम मिलना और वहां रहने की जद्दोजहद ज़्यादा पहले शुरू हो जाती है. आंगनबाड़ी केंद्र से कम से कम एक समय का पूरक पोषाहार मिल सकता था, वो नहीं मिलता.’

उनके अनुसार, ‘आंगनबाड़ी केंद्र होने पर बच्चों की उचित जांच हो जाती और जैसे ही स्वास्थ्य बिगड़ता दिखता तो तत्काल प्रभाव से पोषण पुनर्वास केंद्र पहुंचाया जा सकता था, तो वो भी नहीं हैं. जब ये बेसिक चीज़ें सरकार नहीं दे पा रही तो किस मुंह से श्वेत पत्र लाती और ख़ुद की ख़ामियां गिनाकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारती?’

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