. . . लेकिन बस्तर धधक नहीं रहा !

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दंतेवाडा़ से लौटकर प्रकाश ठाकुर

कहा जाता है कि बस्तर धधक रहा है. एक दिन बस्तर जलकर राख हो जायेगा लेकिन बस्तर धधक नहीं रहा. . . दरअसल बस्तर के जंगलों में गुस्से का जो लावा उबल रहा है वो कभी भी बाहर निकला तो सच में उस लावे को रोक पाना मुश्किल होगा.

नक्सलवाद के नाम पर बस्तर में सरकार और प्रशासन ने जिस तरह से दमन नीति अख्तियार की हुई है उससे गरीब आदिवासी मुक्ति पाने के लिए अब कुछ भी करने को तैयार हो रहे हैं.

बस्तर के पहाड़, जंगलों में मौजूद बेशुमार खनिज संपदा आदिवासियों के लिए जी का जंजाल बन गई है. सरकार उन तमाम खनिज संपदाओं को उद्योगपतियों को बेचने के लिए बेगुनाह आदिवासियों का कत्लेआम कर थोक के भाव में जेलों में जानवरों की तरह ठूस रही है.

यहाँ तक कि उनसे वो अधिकार भी छीन लिया गया है जिसमें उन्हें दमन के खिलाफ विरोध करने का मौका मिलता है.

सरकार की अनदेखी और पुलिस ने इस कदर जंगलों में आंतक मचाया हुआ है कि आदिवासी ना चाहते हुए भी नक्सली विचारधारा से जुड़ने को मजबूर हैं.

बीते 04 दशकों से जिस तरह नक्सलवाद के नाम पर गरीब आदिवासियों की निर्ममता से हत्यायें कर आदिवासियों को ही जेलों में बंद किया गया है, हजारों-लाखों आदिवासी परिवार सीमावर्ती राज्यों में खदेडे़ गए हैं. सैकड़ों हजारों गाँव बियाबान हो चुके हैं.

बस्तर की खनिज संपदाओं को बेचने के लिए नक्सलवाद के नाम पर आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार पर पूर्व केंद्रीय मंत्री व आदिवासी नेता अरविंद नेताम कहते है कि बस्तर के आदिवासियों के गुस्से का लावा उबल रहा है.

लगातार सरकार और तमाम स्थानीय प्रशासन आदिवासियों के अधिकारों का दमन करने कुचक्र कर रहे हैं. तानाशाहपूर्ण रवैया अख्तियार किए हुए है. उन्हें जंगलों से खदेड़ने नक्सली बता मारा जा रहा है.

जेल में बंद कर सुनवाई तक नहीं की जा रही है. यहां तक कि जेलों में सालों से बंद बेगुनाह आदिवासियों से उनके परिजनों को मुलाकात तक करने नहीं दी जा रही है.

आदिवासी जानने बेचैन हैं कि उनके बंदी परिजनों की खैरियत कैसी है ? अगर उनके परिजन शांतिपूर्ण ढंग से विरोध जताते हैं तो पुलिस उन्हें भी नक्सली बता जेलों में बंद कर रही है.

पुलिस के आलाधिकारी लक्ष्मण रेखा पार नहीं करने का वादा तो करते हैं लेकिन पुलिस के जवान आदिवासियों को उचकाने का काम कर रहे हैं.

बस्तर में हालत बहुत नाजुक है. इसके लिए आदिवासी समाज को कुछ ना कुछ सोचना पड़ेगा ताकि उनकी तकलीफों को किसी मंच में सुना जा सके.

वे आगे यह भी कहते है ” ये वही आदिवासी हैं जिन्होंने 200 सालों तक देश में राज करने वाले अंग्रेजों से लड़ने अपनी जान की परवाह नहीं की कि वे रहेंगे या नहीं.”

अब सहनशीलता खत्म हुई तो आदिवासियों का लावा फूटेगा. देश में कोई ताकत नहीं जो उसे रोक पायेगी. अब आदिवासी इस अत्याचार से निजात पाने के लिए परवाह किए बगैर आरपार की लड़ाई को तैयार है.

बस्तर के आदिवासियों पर हो रहे असहनीय अत्याचार पर आदिवासी नेत्री सोनी सोढी भी कहती हैं कि नक्सलवाद के नाम पर अत्याचार का नंगा नाच चल रहा है.

उनके शब्दों में “बस्तर में नक्सलवाद के नाम पर मौजूद खनिज संपदाओं को उद्योगपतियों को बेचने के लिए सरकार आदिवासियों को खत्म कर जंगलों से बेदखल करने में लगी है.”

लेकिन बड़े शर्म की बात है कि बस्तर के 11 आदिवासी विधायक, मंत्री, संसदीय सचिव आदिवासियों के इस दर्द पर भी खामोश हैं. उनसे कुर्सी का मोह नहीं छूट रहा है.

आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार पर अगर आदिवासी नेता विधानसभा – लोकसभा में आवाज़ उठाते तो ये दिन नहीं आता कि गरीब आदिवासी अपने दूधमुंहे बच्चों को लेकर सडक पर उतरते.

आज आलम ऐसा है कि विरोध करने वाले हर आदिवासी को सरकार और प्रशासन नक्सली करार दे गोली मार रही है.

वे आगे बताती हैं कि भूपेश सरकार ने सत्ता में आने से पहले आदिवासियों से वादा किया था कि नक्सलवाद के नाम पर बंद बेगुनाह आदिवासियों को रिहा करेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

सरकार की वादा-खिलाफी पर शांति यात्रा करने पर आदिवासियों को पुलिसिया आतंक से नक्सली करार दिया जा रहा है. अगर सरकार आदिवासियों को बेवकूफ समझती है तो ये सरकार की सबसे बड़ी भूल है.

जिस दिन आदिवासी आरपार की सोच लें उस दिन सरकार को घुटने टेकने पड़ेंगे लेकिन आज भी आदिवासी शांतिपूर्ण ढंग से अपना हक मांग रहे हैं.

अगर उनकी मांगे पूरी नहीं होती तो उनका हक दिलाने के लिए बस्तर को अलग राज्य बनाना आवश्यक हो जायेगा ताकि बस्तर के आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार खत्म हो सके.

ताकि उन्हें जल, जंगल और जमीन पर अधिकार मिल सके. . . बस्तर में सदियों से खनिज संपदाओं और जंगलों की रक्षा कर रहे आदिवासियों को शांति से जीने का हक मिल सके.

खैर बस्तर के आदिवासियों की किस्मत में क्या है यह तो आने वाले वक्त के गर्भ में छिपा है लेकिन इतना तो तय है कि जिन आदिवासियों ने सूर्यास्त नहीं होने वाले अंग्रेजों को लोहे के चने चबवाये थे उसके ये लड़ाई कोई बड़ी बात नहीं. चाहे इतिहास के पन्नों में क्यों ना दर्ज हो जाये?
( साभार भूमकाल समाचार )

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