कुरुक्षेत्र : कांग्रेस में राहुल जी बनाम आर जी की लड़ाई, नेतृत्व की जड़ता और ढुलमुल रवैया भी जिम्मेदार

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विनोद अग्निहोत्री 

मध्यप्रदेश में कमलनाथ सरकार गिरे कोई दो महीने हुए होंगे एक दिन मैं अपने कार्यालय में था कि हमारे एक सहयोगी ने खबर दी कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा में लाने में मददगार रहे भाजपा प्रवक्ता जफर इस्लाम सचिन पायलट से मिलने उनके रविशंकर शुक्ल लेन (पुरानी कैनिंग लेन) स्थित घर पर गए हैं।

हमारे सहयोगी के मुताबिक खबर पक्की है औऱ भाजपा का राजस्थान में ऑपरेशन कमल शुरू हो गया है। मैंने तुरंत सचिन को फोन किया। फोन नहीं उठा तो मेरा शक पक्का हो गया। हम उस खबर को ब्रेक करने ही वाले थे कि सचिन पायलट का फोन आ गया। मैंने उनसे पूछा कि क्या जफर इस्लाम उनसे मिलने आए थे।

सचिन ने खंडन करते हुए बताया कि वह जयपुर में हैं और कहा कि एक बात गांठ बांध लीजिए पार्टी में चाहे कितना लड़ूं पर मैं भाजपा में कभी नहीं जाऊंगा। जो भी कहना सुनना होगा पार्टी के भीतर ही कहूंगा। हमने तत्काल खबर रोक दी और फिर हमारे सहयोगी ने भी कहा कि मुलाकात होनी थी लेकिन हुई नहीं क्योंकि सचिन जयपुर से नहीं लौटे।

सचिन अब भी कह रहे हैं कि वह भाजपा में नहीं जाएंगे। लेकिन मोदी सरकार के जमाने में भारत के अटार्नी जनरल रहे मुकुल रोहतगी और देश के सबसे महंगे वकील हरीश साल्वे जयपुर उच्च न्यायालय में उनके पक्ष में पैरवी कर रहे हैं और तमाम भाजपा नेता आमंत्रण की मुद्रा में उनके साथ कांग्रेस में अन्याय होने की दुहाई दे रहे हैं।

इसका मतलब राजस्थान में सरकार को अस्थिर करने की खिचड़ी ऑपरेशन मध्यप्रदेश पूरा होने के साथ ही शुरू हो गई थी। यूं तो 2014 से कांग्रेस छोड़ने और उनमें से कई के भाजपा में जाने वाले कांग्रेसी नेताओं की फेहरिस्त खासी लंबी है जिनमें इंदिरा राजीव के जमाने से नेहरू गांधी परिवार के वफादार हरियाणा के चौधरी वीरेंद्र सिंह, सोनिया परिवार के घरेलू वफादार टॉम वडक्कन, असम के हरफन मौला नेता हेमंत बिस्वा सरमा, कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बुजुर्ग नेता एसएम श्रीकृष्णा, उत्तराखंड में विजय बहुगुणा, सतपाल महाराज, हरक सिंह रावत, यशपाल आर्य, महाराष्ट्र में बाला साहेब विखे पाटिल, कर्नाटक में रोशन बेग, उत्तर प्रदेश में जगदंबिका पाल, रीता बहुगुणा, गुजरात में शंकर सिंह वाघेला, अल्पेश ठाकोर, बिहार में अशोक चौधरी जैसे प्रमुख नाम शामिल हैं।

सिंधिया के जाने से लगा तगड़ा झटका

लेकिन सबसे ज्यादा झटका कांग्रेस को तब लगा जब मध्यप्रदेश के दिग्गज नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री, लोकसभा में पूर्व मुख्य सचेतक और उपनेता व महासचिव ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने विधायकों के साथ थोक दलबदल करके भाजपा में शामिल हो गए और राज्य की कमलनाथ सरकार गिर गई।

वैसे तो कांग्रेस नेतृत्व और खासकर राहुल गांधी की कार्यशैली को लेकर दूसरी बार लोकसभा चुनावों में हुई कांग्रेस की पराजय के बाद सवाल उठते रहे हैं, लेकिन सिंधिया प्रकरण ने इस बहस को तेज कर दिया कि कांग्रेस में पुराने नेता नए युवा और प्रतिभावान नेताओं को आगे आने नहीं दे रहे हैं जिसकी वजह से एक एक करके युवा नेता या तो हतोत्साहित होकर किनारे हो गए हैं या पार्टी छोड़ रहे हैं।

अब राजस्थान में सचिन पायलट की बगावत के बाद यह बहस और तेज हो गई है। यहां तक कहा जा रहा है कि राहुल गांधी का कद छोटा न हो इसके लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके करीबी बड़े नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, मिलिंद देवड़ा, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह जैसे युवा नेताओं को लगातार दबा रहे हैं जिसकी परिणति पहले सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने और अब सचिन के भी उसी राह जाने के रूप में सामने आई है।

या कि सच्चाई कुछ और है…

लेकिन क्या वास्तविकता यही है या सच्चाई कुछ और है। सबसे पहले यह समझना होगा कि कांग्रेस के कथित युवा नेता जिन्हें टीम राहुल कहा जाता रहा है, कौन हैं और उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि क्या है। इनमें प्रमुख रूप से शामिल रहे हैं ज्यातिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, जितिन प्रसाद, मिलिंद देवड़ा, आरपीएन सिंह, दीपेंद्र हुड्डा, संदीप दीक्षित, अजय माकन, भंवर जितेंद्र सिंह, मीनाक्षी नटराजन, प्रिया दत्त, अशोक तंवर, अरुण यादव, भूपेश बघेल आदि। इस सूची में सिंधिया, पायलट, जितिन, मिलिंद, आरपीएन, दीपेंद्र, संदीप, अरुण यादव और प्रिया दत्त के पिता अपने जमाने में कांग्रेस के बड़े नेता रहे हैं। जबकि अजय माकन के चाचा ललित माकन पूर्व राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा के दामाद और कांग्रेस के सांसद थे।

राहुल से पहले राजनीति में आए टीम राहुल के ज्यादातर नेता

टीम राहुल के ज्यादातर नेता राजनीति में राहुल गांधी से कुछ पहले आ गए थे, लेकिन पार्टी में उनका विकास राहुल गांधी के राजनीति में सक्रिय होने के बाद तेजी से हुआ। 2004 से लेकर 2014 तक यूपीए शासन काल में टीम राहुल के ज्यादातर सदस्यों को संगठन और सरकार में अच्छी खासी हिस्सेदारी मिली और पुराने नेताओं को जो पद और प्रतिष्ठा दशकों की मेहनत के बाद मिली थी, इन्हें वो महज दस साल के भीतर मिल गई।

पुराने नेताओं में प्रणब मुखर्जी, मोतीलाल वोरा, एके एंटोनी, अहमद पटेल, गुलाम नबी आजाद जनार्दन दिवेदी, अंबिका सोनी, पी. चिदंबरम, आनंद शर्मा, अमरिंदर सिंह, कमलनाथ, अशोक गहलोत, मुकुल वासनिक, सुशील कुमार शिंदे जैसे नेता इंदिरा गांधी राजीव गांधी और सोनिया गांधी तीनों के साथ काम करने का तजुर्बा लिए हुए हैं।

इनमें से कुछ ने तो राहुल गांधी को अपनी गोद में खिलाया भी है। लेकिन दिलचस्प बात है कि पार्टी के पुराने नेताओं ने राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानते हुए उन्हें अपना नेता स्वीकार कर लिया। ये सारे नेता अपने पूर्व नेताओं इंदिरा जी, राजीव जी और सोनिया जी की तर्ज पर राहुल गांधी को भी राहुल जी कहकर ही निजी बातचीत में संबोधित करते रहे हैं।

लेकिन इसके उलट राहुल गांधी के साथ-साथ कांग्रेस में तरक्की और सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने वाले टीम राहुल के युवा नेताओं ने उन्हें राहुल जी न कहकर आरजी कहना शुरू कर दिया। कांग्रेस में हमेशा अपने नेता को उनके पहले या आखिरी नाम के साथ जी लगाकर बुलाने की परंपरा रही है।

नेहरू जी, शास्त्री जी, इंदिरा जी, संजय जी, राजीव जी, राव साहब और सोनिया जी के संबोधन की संस्कृति पर आरजी और पीजी ( प्रियंका गांधी ) की संस्कृति हावी हो गई। युवा नेताओं की देखा देखी कुछ पुराने नेता भी राहुल गांधी को आरजी कहने की आदत डालने लगे।

युवा नेताओं ने अपना संवाद सीधे राहुल गांधी से जोड़ा…

कांग्रेस के भीतरी सूत्र बताते हैं कि आरजी पीजी संस्कृति वाले युवा नेताओं ने अपना संवाद सीधे राहुल गांधी से जोड़ा और बीच के बड़े नेताओं की परवाह करना उन्होंने छोड़ दिया। वो राहुल गांधी में अपने नेता से ज्यादा अपना दोस्त देखते थे।

इनमें ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, मिलिंद देवड़ा तो खास तौर से राहुल के साथ राजनीतिक और संगठनात्मक कामकाज के अलावा निजी रिश्तों के लिए भी पार्टी में जाने जाते रहे हैं। टीम राहुल के इन युवा नेताओं को अक्सर संसद में भी राहुल के साथ हंसी मजाक गपशप करते देखा जाता रहा है। इनकी राहुल के साथ सीधी पहुंच थी और जब चाहे तब उनके घर जा सकते थे।

राहुल ही नहीं इन युवा नेताओं को सोनिया गांधी का संरक्षण और प्रियंका गांधी का स्नेह भी मिला। यहां तक कि 2019 के लोकसभा चुनाव में जब प्रियंका को राजनीति में उतारा गया तो उन्हें और ज्योतिरादित्य सिंधिया को आधे-आधे उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी सौंपी गई और कांग्रेस मुख्यालय में दोनों के बैठने के लिए एक ही कमरा था।

…और टूटती गई अनुशासन की परंपरा

कांग्रेस के टिकट पर दो बार लोकसभा का चुनाव लड़ चुके कल्कि पीठाधीश्वर आचार्य प्रमोद कृष्णम कहते हैं कि कांग्रेस में बड़े नेता जहां नेतृत्व से एक दूरी बनाकर रहते हैं वहीं राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बावजूद इन युवा नेताओं ने उन्हें नेता कम दोस्त ज्यादा माना और दूसरे बड़े नेताओं के साथ इनका बर्ताव बेहद उपेक्षा वाला रहता रहा है।

इनसे जब भी किसी मुद्दे पर अहमद पटेल, कमलनाथ, अशोक गहलोत, दिग्विजय सिंह आदि पार्टी के पुराने नेता कुछ कहते थे तो इन नेताओं का एक ही जवाब होता था कि मैं सीधे आरजी से बात कर लूंगा या मेरी आरजी से बात हो गई है। नतीजा यह हुआ कि नेतृत्व और नेताओं के बीच की अनुशासन की जो श्रृंखला होती थी वो टूट गई।

कृष्णम के मुताबिक नतीजा ये हुआ कि मध्यप्रदेश में टीम राहुल के सिंधिया एक तरफ तो कमलनाथ और दिग्विजय एक तरफ उसी तरह राजस्थान में सचिन पायलट एक तरफ तो अशोक गहलोत व सीपी जोशी एक तरफ हो गए।

…और स्थितियां विस्फोटक होती चली गईं

अपना नाम न छापने की शर्त पर कांग्रेस के एक अन्य वरिष्ठ नेता का कहना है कि हमने इंदिरा गांधी, संजय गांधी और राजीव गांधी का जमाना भी देखा है। तब भी शीर्ष नेतृत्व और दूसरे नेताओं के बीच एक दूरी और व्यवस्था होती थी।

संजय गांधी जब राजनीति में आए तो यह व्यवस्था टूटी और इसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा। इसलिए 1980 में इंदिरा जी जब दोबारा जीतीं तो उन्होंने पार्टी संगठन की पुरानी व्यवस्था को बहाल किया जो राजीव गांधी के आने के बावजूद बरकरार रही।

लेकिन जब राजीव प्रधानमंत्री बने तो अरुण नेहरू, सतीश शर्मा, अरुण सिंह जैसे कुछ नेताओं ने पार्टी तंत्र को तोड़ दिया जिसका नुकसान फिर कांग्रेस को हुआ। नरसिंह राव और सोनिया गांधी के जमाने में फिर कांग्रेस ने पार्टी की पुरानी व्यवस्था बनाई और पार्टी आगे बढ़ी।

लेकिन आरजी संस्कृति ने उस संगठनात्मक व्यवस्था को खत्म कर दिया और नए और पुराने नेताओं के बीच न सिर्फ दूरी बढ़ी बल्कि अघोषित लड़ाई शुरू हो गई। नेतृत्व की विफलता यह रही कि समय रहते इस पर काबू नहीं पाया गया और निर्णय टाले जाते रहे। जिससे संकट खत्म होने की बजाय बढ़ता गया और स्थितियां विस्फोटक होती चली गईं।

राहुल के अध्यक्ष बनने के बाद…

राहुल के अध्यक्ष बनने के बाद टीम राहुल के युवा नेताओं को बहुत जल्दी सबकुछ पा लेने की जल्दी थी और उन्हें उम्मीद थी कि लोकसभा चुनावों के बाद कांग्रेस और मजबूत होकर उभरेगी जिसका सारा श्रेय राहुल गांधी को मिलेगा। इसके बाद पुराने नेताओं की सफाई होगी और पार्टी की सरकार बनी तो सत्ता की भी कमान टीम राहुल के हाथों में होगी। लेकिन हुआ उलटा।

2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों ने सारा गणित बिगाड़ दिया। मध्यप्रदेश में कांग्रेस की असफलता के लिए कमनलाथ को निशाने पर लेने की बजाय सिंधिया को अपना लोकसभा चुनाव हारने की सफाई देनी पड़ी और राजस्थान में पार्टी का खाता न खुल पाने की तोहमत अशोक गहलोत पर मढ़ने की सचिन पायलट की रणनीति पर तब पानी फिर गया जब खुद राहुल गांधी जो अमेठी से चुनाव हार गए थे, अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।

कांग्रेस के भीतर युवा और पुराने नेताओं के बीच दोषारोपण का सिलसिला शुरू हो गया और केंद्रीय नेतृत्व जड़वत होकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। नतीजा मध्यप्रदेश में सिंधिया की बगावत ने 15 साल बाद मिली सत्ता की बलि ले ली और राजस्थान में पायटल और गहलोत की लड़ाई जारी है।

कांग्रेस के पुराने नेताओं के कुछ सवाल भी हैं..

टीम राहुल को लेकर कांग्रेस के भीतर पुराने नेताओं के कुछ सवाल हैं। कांग्रेस के एक पूर्व महासचिव का कहना है कि कांग्रेस में जितने भी पुराने नेता हैं सब संगठन के निचले पायदान से एक—एक सीढ़ी चढ़कर और जमीन से उठकर यहां तक पहुंचे हैं और इनमें कोई भी किसी नामी गिरामी नेता का वारिस नहीं है।

इसलिए उन्हें उनकी संगठन क्षमता और संघर्ष क्षमता को पहचान कर इंदिरा गांधी, संजय गांधी और राजीव गांधी ने आगे बढ़ने का मौका दिया और सोनिया गांधी ने उनकी सलाह और अनुभव का फायदा उठाते हुए पार्टी को केंद्रीय सत्ता तक पहुंचाया। लेकिन टीम राहुल के ज्यादातर नेता बड़े नेताओं के बेटे हैं और उन्होंने इतनी जल्दी सबकुछ पाया है कि उनमें धैर्य नहीं है।

इस नेता का सवाल है कि टीम राहुल के जिन युवा नेताओं को मौका दिया गया उन्होंने नतीजा क्या दिया। हरियाणा में अशोक तंवर, मध्यप्रदेश अरुण यादव, उत्तर प्रदेश में राज बब्बर, दिल्ली में अजय माकन और संदीप दीक्षित, बिहार में महबूब कैसर, झारखंड में अजय कुमार, पंजाब में प्रताप सिंह बाजवा, असम में गौरव गोगोई, गुजरात में अल्पेश ठाकुर, महाराष्ट्र में अशोक चह्वाण मुंबई में संजय निरूपम, राहुल गांधी की पसंद थे। लेकिन इनमें से ज्यादातर वो नतीजे नहीं दे सके जिनकी पार्टी को अपेक्षा थी।

पुराने नेताओं का टीम राहुल पर सबसे बड़ा यही आरोप है कि उन्हें इतनी कम उम्र में जो बड़ी जिम्मेदारियां मिलीं वो उन्हें पूरा करने में विफल रहे। जबकि टीम राहुल के युवा नेता कहते हैं कि यह गलत है। युवा नेताओं में सचिन पायलट ने राजस्थान में बतौर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष इतनी मेहनत की कि पार्टी सत्ता में लौटी लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी पुराने नेताओं ने तिकड़म करके अशोक गहलोत को दिला दी।

इसी तरह मध्यप्रदेश में मेहनत की सिंधिया ने लेकिन दिग्विजय सिंह और कमलनाथ ने उन्हें सीएम नहीं बनने दिया। संजय निरूपम को महाराष्ट्र और मुंबई के पुराने कांग्रेसियों से यही शिकायत रही। राहुल के करीबी एक युवा नेता के मुताबिक लोकसभा चुनावों के बाद राहुल गांधी की नाराजगी इन्हीं पुराने नेताओं से है जिन्होंने न तो खुद मेहनत की और न ही युवा नेताओं को काम करने दिया।

लेकिन पुराने नेता जवाब में कहते हैं कि हरियाणा में अशोक तंवर को पूरा मौका मिला, लेकिन उन्होंने पूरा समय भूपेंद्र सिंह हुड्डा से लड़ने में गंवा दिया और एन चुनाव के वक्त पार्टी छोड़ दी। अगर कुछ और पहले हुड्डा को प्रदेश की कमान सौंप दी जाती तो हरियाणा में कांग्रेस की सरकार बन गई होती।

जमकर रस्साकसी है…

पुराने नेता यही तर्क पंजाब में बाजवा को लेकर देते हैं जो ज्यादा वक्त कैप्टन अमरिंदर सिंह से झगड़ते रहे और अगर वक्त पर कैप्टन को कमान नहीं सौंपी जाती तो पंजाब में सरकार बनना मुश्किल था। यही बात मध्यप्रदेश में अरुण यादव को लेकर पुराने नेता कहते हैं।

कुल मिलाकर कांग्रेस के भीतर राहुल गांधी को राहुल जी कहने वाले पुराने नेताओं और आरजी कहने वाले युवा नेताओं के बीच जमकर रस्साकसी है। छात्र जीवन से ही कांग्रेस के खांटी कार्यकर्ता रहे और मुलायम सिंह यादव के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का मामला सुप्रीम कोर्ट तक लाने वाले विश्वनाथ चतुर्वेदी टीम राहुल के युवा नेताओं को मृतक आश्रित कोटे का नेता बताते हैं।

चतुर्वेदी कहते हैं कि जिस तरह सरकारी नौकरी में पिता की मृत्यु के बाद उसके वारिस को सांत्वना के तहत नौकरी मिलती है, उसी तरह कांग्रेस में जो भी नेता दिवंगत हुआ पार्टी ने उसके बेटे या बेटी को तत्काल पद देकर उसे उसके पिता का सियासी वारिस बना दिया।

चतुर्वेदी के मुताबिक नेताओं के जिन वारिसों को वक्त से पहले और योग्यता से ज्यादा मिला, वही आज कांग्रेस को आंखें दिखाकर संकट के समय पार्टी छोड़कर नए रास्ते तलाश रहे हैं। जबकि इस समय पार्टी को उनकी सबसे ज्यादा जरूरत है।

वहीं पुराने नेता भले ही उतनी मेहनत नहीं कर पा रहे हों, लेकिन पार्टी छोड़कर नहीं जा रहे हैं। इससे साबित है कांग्रेस के प्रति वफादार वही हो सकता है जो जमीन से उठकर और संगठन की प्रक्रिया से गुजर कर शीर्ष पर पहुंचा हो।

( साभार : अमर उजाला )

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