अभिषेक सिंह के लिए बजी खतरे की घंटी

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विक्रम बाजपेयी/राजनांदगांव।

विधानसभा चुनाव के नतीजे क्या सांसद अभिषेक सिंह के लिए खतरे की घंटी बनकर सामने आए हैं? यह सवाल बेहद महत्वपूर्ण है. लोकसभा क्षेत्र की 8 में से सात विधानसभा क्षेत्र में भाजपा की करारी हार हुई है. हार का अंतर भी बेहद ज्यादा है. आंकड़ों को एक करें तो जितने वोट कांग्रेस को मिले हैं वह आने वाले लोकसभा चुनाव में भी भाजपा का सफाया कर सकते हैं.

राजनांदगांव लोकसभा क्षेत्र में आठ विधानसभा सीट शामिल है. इनमें 6 विधानसभा सीटों पर सीधे तौर पर कांग्रेसियों ने कब्जा कर लिया है. सातवीं सीट पर कांग्रेस से अलग हुए प्रत्याशी जीत कर आए हैं. दूसरी ओर भाजपा के पास इकलौती सीट है राजनांदगांव की है जहां से डॉ. रमन सिंह जीते हैं.

4 से 6 हुई कांग्रेस
2013 के चुनाव में राजनांदगांव लोकसभा क्षेत्र में शामिल 8 में से 4 सीटें ही कांग्रेस के पास थी. 2018 में यह बढ़कर 6 हो गई हैं. पिछली बार पंडरिया, कवर्धा, राजनांदगांव, डोंगरगढ़ में भाजपा ने जीत हासिल की थी. इस बार पंडरिया-कवर्धा सहित उसके हाथ से डोंगरगढ़ निकल गए हैं.
जबकि कांग्रेस ने अपना प्रदर्शन सुधारा है. उसने पंडरिया-कवर्धा और डोंगरगढ़ को भाजपा के हाथों से छीन लिया है. जबकि खैरागढ़ में भी कांग्रेस की जो हार हुई है वह इसलिए उसके लिए परेशानी खड़ी नहीं कर पाएगी क्यूंकि देवव्रत सिंह मूलत: कांग्रेसी ही हैं.

जीत के वह कारण जो बन सकते हैं सिरदर्द
अभिषेक सिंह ने 2014 का लोकसभा चुनाव बेहद आसानी से जीता था. तब कांग्रेस का प्रत्याशी (कमलेश्वर वर्मा) अभिषेक के सामने बौना साबित हुआ था. कहा तो यह तक जाता है कि कमलेश्वर, भाजपा से सेट हो गए थे. इसके अलावा वो कोई बड़ा चेहरा भी नहीं थे जो भाजपा का मुकाबला कर सके.
अभिषेक को खुद के नए और युवा चेहरे का फायदा तो मिला ही साथ ही साथ मुख्यमंत्री के सुपुत्र होने का भी फायदा मिला. एंटी कांग्रेस के माहौल के बीच मोदी लहर का भी जबरदस्त फायदा अभिषेक को मिला. उस समय चार विधानसभा सीटों पर लोकसभा क्षेत्र में भाजपा के विधायक थे.
अब जीत के वही कारण अभिषेक के लिए परेशानी खड़ी कर रहे हैं. 6 सीटों पर कांग्रेस के विधायक हैं. नए चेहरे, सीएम सुपुत्र होने फायदे का अब उलटा असर ही होना है. इसके अलावा तब की मोदी लहर को अब लोग बतोले बाजी बताने लगे हैं. यदि कांग्रेस ने दमदार प्रत्याशी खड़ा किया तो वह भी परेशानी पैदा करेगा. इसके अलावा भाजपा में बढ़ती अंदरुनी गुटबाजी का भी नुकसान उठाना पड़ेगा.
कुल मिलाकर अभिषेक के लिए आगे की राह आसान नहीं है. दरअसल इस बार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशियों ने कुल जमा 6 लाख 56 हजार 238 वोट प्राप्त किए हैं. जबकि भाजपा को 4 लाख 73 हजार 484 वोट ही मिले हैं. कांग्रेस और भाजपा के बीच मतों का अंतर एक लाख 82 हजार 754 होता है.
इधर, तब अभिषेक सिंह ने जो 6 लाख 43 हजार 473 वोट अर्जित किए थे उस पर भी किंतु-परंतु के सवाल होने लगे हैं. उस समय कांग्रेस को महज 4 लाख 07 हजार 562 मत लोकसभा क्षेत्र में मिले थे जबकि नोटा में 32 हजार 384 वोट गए थे. उस समय के चुनावी परिदृश्य को देखा जाए तो 2 लाख 35 हजार 911 वोट से अभिषेक ने भले ही जीत हासिल की थी लेकिन तब और अब के हालात अलग हैं.
2014 के लोकसभा चुनाव में मिली जीत की यदि 2018 के विधानसभा चुनाव में मिली हार से तुलना की जाए तो अभिषेक के पास आज महज 53 हजार 157 मतों की बढ़ते है. यह भी तब जब अन्य दलों अथवा नोटा के वोटों को नहीं लिया गया है.

सुलगते सवाल…
इधर, कई सवाल ऐसे हैं जो सुलग रहे हैं. बेरोजगारी का मसला सिर चढ़ कर बोल रहा है. किसान बेहद परेशान रहा है. चिकित्सा, शिक्षा, यातायात, उद्योग जैसे मसलों का कोई सकारात्मक हल नहीं निकला है. यदि कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में किए गए वायदे को पूरा करना शुरु कर दिया तो अभिषेक के लिए और भी बड़ी परेशानी खड़ी हो जाएगी.
उधर, डॉ. रमन सिंह का भी चेहरा अब पहले जैसा नहीं रहा है. चाऊंर वाले बाबा अब दारु वाले बाबा कांग्रेसियों द्वारा बुलाए जाने लगे हैं. ऊपर से नागरिक आपूर्ति निगम, इंदिरा प्रियदर्शनी सहकारी बैंक घोटाले जैसे आरोपों ने रमन सिंह के चेहरे से नकाब हटा दिया है.

कहीं यही सब अभिषेक सिंह की कुर्सी न हटा दे.

आखिरी में एक सवाल यह भी..
क्या इन परिस्थितियों में अभिषेक सिंह लोकसभा का अगला चुनाव लड़ेंगे?

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